इस तरह कैसे निर्वाह होगा? बिना खाये सबेरे दूध न होगा। बच्चे भूखे रहेंगे। दुबले पड़ जायँगे।
बीमारी भी जकड़ सकती है। चोकर रक्खा है, लेकिन उतनी बकरियों और बच्चों को क्या होगा?
रात को पेड़ छाँटना पड़ेगा।
सूरज डूब गया। बिल्लेसुर की आँखों में शाम की उदासी छा गई।
दिशाएँ हवा के साथ सायं-सायं करने लगीं।
नाला बहा जा रहा था जैसे मौत का पैग़ाम हो।
लोग खेत जोतकर धीरे-धीरे लौट रहे थे, जैसे घर की दाढ़ के नीचे दबकर, पिसकर मरने के लिए।
चिड़ियाँ चहक रही थीं, रात को घोंसले की डाल पर बैठी हुई, रो-रोकर साफ़ कह रही थीं,
रात को घोंसले में जंगली बिल्ले से हमें कौन बचायेगा?
हवा चलती हुई इशारे से कह रही थी, सब कुछ इसी तरह बह जाता है।
बिल्लेसुर डंडा लिये धीरे-धीरे गाँव की ओर चले।
ढाढस अपने आप बँध रहा था।
दूसरे काम के लिए दिल में ताक़त पैदा हो रही थी।
भरोसा बढ़ रहा था। गाँव के किनारे आये।
महावीर जी का वह मन्दिर दिखा।
अँधेरा हो गया था। सामने से मन्दिर के चबूतरे पर चढ़े।
चबूतर-चबूतरे मन्दिर की उल्टी प्रदक्षिणा करके, पीछे महावीर जी के पास गये।
लापरवाही से सामने खड़े हो गये और आवेग में भरकर कहने लगे––"देख, मैं ग़रीब हूँ।
तुझे सब लोग ग़रीबों का सहायक कहते हैं, मैं इसीलिए तेरे पास आता था, और कहता था, मेरी बकरियों को और बच्चों को देखे रहना।
क्या तूने रखवाली की, बता, लिये थूथन-सा मुँह खड़ा है ?" कोई उत्तर नहीं मिला।
बिल्लेसुर ने आँखों से आँखें मिलाये हुए महावीर जी के मुँह पर वह डंडा दिया कि मिट्टी का मुँह गिली की तरह टूटकर बीघे भर के फ़ासले पर जा गिरा।